सोमवार, 2 नवंबर 2009

कोई रोज-रोज नहीं लिखा करता...(कविता).

कुछ तो वजहें होंगी, कुछ तो अफसाने होंगे ।
वरना कोई रोज-रोज नहीं लिखा करता इस तरह मातमी गान ।


निश्चय ही धरती के भीतर,
कुछ तो उथल-पुथल होती होंगी ।
भावनाओं के कोमल सतह पर,
कठोर चट्टानों का आधात होता होगा।
कभी भूचाल आते होंगे,
कभी अंदर का लावा पिघलकर,
कलम के सहारे शब्दों का शक्ल लेता होगा ।
सारी वेदनायें अक्षरों में सिमट जाती होंगी,
और बनती होंगी, झकझोर देने वाली कविता ।

कोई तो है, जिसके कटु वचनों से आहत होता होगा हर रोज तुम्हारा मान,
वरना कोई रोज-रोज नहीं लिखा करता, इस तरह मातमी गान ।


पर्वतों सा मुकुट पर तेरे,
किसी सिरफिरे का शत बार प्रहार होता होगा ।
तुम्हारे केशुओं सा फैली घनी चोंटियों की श्रृंखला में,
किसी मदभरे गज का भीतर तक संघात होता होगा।
टूटती होंगी शिखर छूती टहनियां,
उजड़ती होंगी भीतर कलरव करती खग सी ख्वाईशो के घोसले।
पनाहों के लिये भटकती होंगी,
तुम्हारे भीतर का अंर्तद्वंद ।
और तब टूटती होगी मर्यादा कलम की,
टूटता होगा शब्दों का वह सम्मान ।

पता नहीं क्यों?
जब-जब पढ़ा करता तुम्हे, तब-तब होता ऐसा ही कुछ भान ।
वरना कोई रोज-रोज नहीं लिखा करता इस तरह मातमी गान।


कोई तुझे अपनी तप्त रश्मियों से दग्ध कर,
कुरेदता होगा रसातल तक ।
तुम्हारे हिमशिखर सा पाषाण इरादे पिघलते होंगे ।
और चक्षु संबंधों का विस्तार पाती होंगी अधर तक ।
बहती होगी सरिता,
समस्त वेदनाओं के करकटों को स्वयं में समेटकर ।
सागर सा धैर्य, मुख का तुम्हारा,
विचलित होता होगा क्षण भर को ।
हृदय में उठती होंगी विशालकाय लहरें ।
डूबती होंगी तटें ना जाने कितनी,
कितनी अभिलाषाएं मृतप्राय सी होती होंगी सतह पर ।
और तब कहीं कागजों पर रेखांकित होती होगी, एक नारी का चोटिल स्वाभिमान ।


ना जाने क्यों ? तुम्हारे शब्दों में छिपी इन्ही वेदनाओं को देख ,
हर रोज टूटा करता, मेरे पुरूष होने का अभिमान ।
सच कहता हूं, कुछ तो जरूर है,
वरना कोई रोज-रोज नहीं लिखा करता इस तरह मातमी गान ।