शुक्रवार, 30 जनवरी 2015
सोमवार, 2 नवंबर 2009
कोई रोज-रोज नहीं लिखा करता...(कविता).
वरना कोई रोज-रोज नहीं लिखा करता इस तरह मातमी गान ।
निश्चय ही धरती के भीतर,
कुछ तो उथल-पुथल होती होंगी ।
भावनाओं के कोमल सतह पर,
कठोर चट्टानों का आधात होता होगा।
कभी भूचाल आते होंगे,
कभी अंदर का लावा पिघलकर,
कलम के सहारे शब्दों का शक्ल लेता होगा ।
सारी वेदनायें अक्षरों में सिमट जाती होंगी,
और बनती होंगी, झकझोर देने वाली कविता ।
कोई तो है, जिसके कटु वचनों से आहत होता होगा हर रोज तुम्हारा मान,
वरना कोई रोज-रोज नहीं लिखा करता, इस तरह मातमी गान ।
पर्वतों सा मुकुट पर तेरे,
किसी सिरफिरे का शत बार प्रहार होता होगा ।
तुम्हारे केशुओं सा फैली घनी चोंटियों की श्रृंखला में,
किसी मदभरे गज का भीतर तक संघात होता होगा।
टूटती होंगी शिखर छूती टहनियां,
उजड़ती होंगी भीतर कलरव करती खग सी ख्वाईशो के घोसले।
पनाहों के लिये भटकती होंगी,
तुम्हारे भीतर का अंर्तद्वंद ।
और तब टूटती होगी मर्यादा कलम की,
टूटता होगा शब्दों का वह सम्मान ।
पता नहीं क्यों?
जब-जब पढ़ा करता तुम्हे, तब-तब होता ऐसा ही कुछ भान ।
वरना कोई रोज-रोज नहीं लिखा करता इस तरह मातमी गान।
कोई तुझे अपनी तप्त रश्मियों से दग्ध कर,
कुरेदता होगा रसातल तक ।
तुम्हारे हिमशिखर सा पाषाण इरादे पिघलते होंगे ।
और चक्षु संबंधों का विस्तार पाती होंगी अधर तक ।
बहती होगी सरिता,
समस्त वेदनाओं के करकटों को स्वयं में समेटकर ।
सागर सा धैर्य, मुख का तुम्हारा,
विचलित होता होगा क्षण भर को ।
हृदय में उठती होंगी विशालकाय लहरें ।
डूबती होंगी तटें ना जाने कितनी,
कितनी अभिलाषाएं मृतप्राय सी होती होंगी सतह पर ।
और तब कहीं कागजों पर रेखांकित होती होगी, एक नारी का चोटिल स्वाभिमान ।
ना जाने क्यों ? तुम्हारे शब्दों में छिपी इन्ही वेदनाओं को देख ,
हर रोज टूटा करता, मेरे पुरूष होने का अभिमान ।
सच कहता हूं, कुछ तो जरूर है,
वरना कोई रोज-रोज नहीं लिखा करता इस तरह मातमी गान ।
मंगलवार, 16 जून 2009
उपेक्षा
जवानी में पूरे महकमें में अपनी हुकुम चलाने वाले रामधीन की हालत अपने ही घर में बहुओं के सामने मिमियायी बिल्ली सी हो गयी थी। बेटे मुसकुण्डे जवान थे पर मजाल है रामधीन को कोसती हुई अपनी लुगाई की तलवार की धार सी चमचमाती जिव्हा पर जरा सा भी नियंत्रण रख पाये । कभी टोकने की कोशिश की तो बेटे और बहू के बीच बातचीत का माध्यम वो नन्हा सा पोता हो जाता। ले देकर मनाने पथाने पर जिंदगी की गाड़ी पटरी पर आती तो दोनो मिलकर रामधीन को खूब कोसते, बड़ी बहू उलाहना देते हुये कहती - ये खूसट बुढ़उ, जब तक रहेगा हम दोनों के बीच इसी तरह खिचिर पिचिर होती रहेगी । अच्छा खासा गांव में पड़ा था, बेकार आने को कह दिया ?एक बार तुमने कह क्या दिया सही में चला आया, एक बार तो सोच लिया होता , मगर दिमाग तो सठिया गया है ना, अब इस उम्र में कहा भला इतनी बुद्धि? ।
रामधीन को अपने बड़े बेटे के घर आये हफ्ते भर ही हुये थे कि अब जी भर गया, वह खुद को कोसता, कि कहां बेकार चले आये, उससे तो अच्छा था गांव के घर में अपने ही हाथ से अंगीठी पर सिंकी हुई जली रोटियों का स्वाद लेकर जैसे तैसे गुजर करते । आखिर इतने सालों से रूखी- सूखी खाकर गुजर तो चल रहा था ना ? लेकिन जिस तरह जवानी में मन पर नियंत्रण नहीं होता उसी तरह बुढ़ापे में चटकारें मारती हुई जीभ पर जितनी बंदिशें लगाओ कमबख्त उतनी ही दगा दे जाती है । अच्छे पकवान की लालसा लिये रामधीन जब घर से निकला तभी मन में आशंका थी कि कहीं बहुयें अनाप-शनाप कहने लगीं तो क्या होगा? लेकिन इंद्रियों का आवेग स्वाभिमान की दीवारों को नेस्तनाबूत कर देता है । क्षणिक सुख की लालसा में कहां किसी इज्जत की चाह और कहां स्वाभिमान को चोंट पहुचने का डर ।
लेकिन अब रामधीन का मन पूरी तरह भर गया था वह अपने गांव लौट जाना चाहता था । बहू से घर लौटने की इच्छा जाहिर की तो हफ्ते भर से मुरझाये चेहरे पर जैसे चमक आ गयी, फुदकते हुये कहने लगी - हां बाबूजी, मैं भी इनके पापा से कल ही कह रही थी, खेती बाड़ी के दिन आ गये, ऐसे में नौकरों के भरोसे बैठे रहने से तो काम नहीं चलेगा ना ? कल सुबह वाली ट्रेन सुपरफास्ट है ज्यादा जगहों पर नहीं रूकती, सीधे लखनउ से बनारस को जाती है । आप कहें तो मैं घर बैठे ही रिजर्वेशन के टिकट निकाल दूं। आजकल न स्टेशन पर टिकट के लिये जाने की झंझट और न ही किसी से कुछ कहने की जरूरत, हां बाबूजी, एक बटन क्लिक करते ही घर में टिकट निकल आता है ।
जाते वक्त सुबह बेटा स्टेशन तक छोड़ने आया और जेब से पचास रूपये के नोट निकालते हुये कहा- बाबूजी, ये रख लो, रास्ते में काम आयेगा । रामधीन पसीने से भीगे हुये पुराने नोटं को देखकर गुस्से से आग बबूला हो रहा था, कभी वह अपने बेटे मनोज के चेहरे को देखता तो कभी मुड़ी हुई बीच से फटी नोट को देख गुस्से से लाल-पीला होता । जी में आ रहा था कि कह दे ,बेटा साठ रूपये की टिकट तो बनारस से गांव तक बस में जाने की लगती है, उससे तो बेहतर है कि तुम इसे अपने पास रख लो, लेकिन वह कुछ कहता इसके पहले ही बेटे ने मुरझाये चेहरे से नीची नजरें करते हुये कहा- बाबूजी, महंगाई बहुत है, घर के खर्च बमुश्किल से चल पाते हैं ।
रामधीन ने गुस्से से कहा- बेटा, महंगाई तो उस समय भी थी जब तेरे बाप को तीन सौ रूपये की तनख्वाह मिला करती और उसमें से ढाई सौ रूपये तुम दोनों बेटों की पढ़ाई में खर्च हो जाते। हर हफ्ते तुम्हारी चिट्ठियों पर हालचाल कम रूपयों की फरमाईश ज्यादा होती । तू जब कभी सौ रूपयों की डिमांड करता तो तेरा बाप तुझे दो सौ रूपये मनिआर्डर भेजा करता, खैर... ।
अभी रामधीन की बातें पूरी भी नहीं हुई थी कि ट्रेन चलने लगी और बेटा जल्दी-जल्दी पिता को विदा कर चलती ट्रेन से उतर गया । गांव के सरहद पर पहुंचकर रामधीन को थोड़ा सुकुन मिला। अब फिर से वही दिनचर्या, वही माटी का चूल्हा , धुंओं के बीच मीचती हुई बूढ़ी आंखें और उन घने धुंओं के बीच खांसता हुआ बुढ़ापा, बस यही तो छोटी सी जिंदगी है। मन किया तो कुछ बना लिया नही तो सुबह की रूखी-सूखी खाकर ही सो गये। लेकिन पूरा बुढ़ापा इस तरह तो नहीं कट सकता था। अनियमित खानपान और पेट की क्षुधा को ढीले होते हाथ पैर का हवाला देकर शरीर को बहुत दिनों तक आखिर कैसे तंदरूस्त रखा जा सकता था ? कुछ दिनों में ही रामधीन की तबियत फिर से खराब हो गयी, मन किया इस बार छोटे बेटे के यहां जाकर इलाज कराया जावे और पेट की बरसों से धधक रही चिंगारी को शांत किया जाये पर छोटी बहू की याद आते ही मन मसोसकर रह गया । छोटी बहू तो जैसे ज्वालामुखी है, बोलती है तो लगता है मानों अंगारे बरस रहे हों।
रामधीन की बिगड़ती हालत को देखकर पड़ोसियों ने दोनों बेटों को इत्तला करने की कोशिश की लेकिन अपने -अपने परिवार में मगन बेटों को भला इसकी क्या परवाह? बड़े बेटे के मन में पिता को देखने की थोड़ी इच्छा हुई भी तो पत्नी की खरी खोटी सुनकर गांव जाने की हिम्मत ही नहीं हुई। भुनभुनाते हुये कहने लगीं- पिछली बार पूरे एक हफ्ते की छुट्टी खराब करके आये थे, कुछ मिला? अरे बाबूजी को कुछ हो गया तो पड़ोसी तो मर नहीं गये हैं?जरूर खबर भिजवायेंगे। अब आज के जमाने में कोई ऐसे पुण्यात्मा तो बचे नहीं हैं कि तुम्हे खबर ना लगे और बाप की अर्थी का इंतजाम हो जाये । कितनी बार कहा है धर्मात्मा मत बनों, दुनिया को देखकर सीखो, सारे लोग स्वार्थी हैं किसी को किसी की परवाह नहीं है, अरे और कोई नही तो तुम्हारी खेती बाड़ी करने वाला नौकर तो जिंदा है । पिछली बार कितनी दफा मना किया होगा, लेकिन तुम्हारा तो प्यार जैसे छाती से छलकता है, अभी गर्मी में शिमला जाने का प्लान है, सब छुट्टियां ऐसे ही खत्म कर दोगे तो बच्चों को क्या खाक घुमाओगे?
पड़ोसियों ने इधर-उधर से दवाई के इंतजाम किये लेकिन पेट की आग से झुलसी सिकुड़ी हुई आंतों की कमजोरियों को गोलियां भला कब तक दूर कर पाती? हालत दिन ब दिन बिगड़ती गयी, और अब तो गांव के रिश्तेदारों को लगने लगा कि बेटे तभी आयेंगे जब बाप के अंतिम दर्शन की उनके अंदर अभिलाषा बची हो। बेटों को फिर से खबर की गयी कि यदि उन्हे पिता के अंतिम दर्शन करने हैं तो वे तुरंत सुबह की गाड़ी से ही चले आयें। खबर पाते ही दोनो बेटे भोर में आ गये, इस बार वे पूरी तैयारी के साथ आये थे, बहुओं के चेहरे पर अजीब सी चमक थी, मन में कहीं ना कहीं इस बात की खुशी थी कि चलो इस बुढ़उ के झंझट से हमेशा के लिये मुक्ति मिलेगी। रोज-रोज का वही नाटक, कभी बुखार तो कभी खांसी, कभी पेट दर्द तो कभी बदन में सूजन। बूढ़ा आदमी घर में क्या हुआ मानों आफत ही आफत, कभी सुकुन से रहने को नहीं मिलता, मशीन सी जिंदगी में बुढ़ापा कचरे की तरह घुसकर पूरी दिनचर्या को जैसे जाम कर देती है।
घर पहुंचते ही अच्छी भली चंगी, रास्ते भर फुदक-फुदक कर खाते पीते आयी बहुओं के चेहरे शोक संतप्त हो गये, आंखें सूर्ख लाल हो गयीं, आंसुओं की धार सहयाद्रि पर्वत से निकली किसी सरिता की तरह प्रवाहमान होकर आंचल को गीली करने लगी। दोनों बहुयें ऐसे रो रही थीं जैसे उनके सर से किसी देवता की छत्रछाया छीन गयी हो। सब कुछ दिखावटी था लेकिन इस बनावटीपन में भी विशिष्टता थी, आखिर आज की व्यस्त जिंदगी में कहां इतनी फुर्सत थी कि देर तक किसी एक ही भूमिका का निर्वाह करते हुये बैठे रहा जाये, आज मनुष्य की जिंदगी भी तो रंगमंच के एक पात्र की तरह हो गयी है जहां ढेर सारी भूमिकाओं का निर्वहन एक व्यक्ति को एक ही समय पर करना होता है, सो समय पड़ा तो रो लिये और मन हुआ तो थोड़ी देर में ही किसी रेस्टोरेंट में बैठकर आइसक्रीम का लुत्फ उठा लिये।
आस पड़ोस के लोग जानते थे कि दोनों बहुओं की आंखों से जितने लोटे भर आंसू दहाड़ मार-मारकर गिर रहे है, उतने लोटे भर पानी तो इन्होने ब्याह के दिन से अब तक मिलाकर भी कभी ससुर को पानी नहीं पिलायी होगी। लेकिन वो जमाना कहां रहा, अब तो कहां बुजुर्गों की परवाह और कहां लोकलाज का भय। किसी ने कुछ कहा, तो कह दिया कि तुम्हारी तरह बैठे ठाले नहीं हैं, गांव की जिंदगी और पशुओ के घुमंतु फक्कड़पन में कोई अंतर थोडे ही होता है, शहर जाकर देखो, चौबीस घण्टे भी कम पड़ते हैं।
रामधीन खाट पर लस्त पड़ा हुआ था, यद्यपि वह बोल नहीं पा रहा था, लेकिन सब कुछ सुन और समझ पा रहा था । वह बुढ़ापे की पीड़ा को बड़ी शिद्दत से महसूस कर रहा था, वह मन ही मन विचार कर रहा था कि किस तरह चौथेपन की अवस्था रास्ते में पड़े पत्थर की मानिंद अस्तित्वविहीन हो जाती है, अपने पराये हो जाते हैं और खून के रिश्ते कन्नी काटने लगते हैं। जिसके मन में जो आया कहकर निकल गया । जिंदगी भर ठोकरें खाकर अनुभव इकट्ठी की, पर किसी को कहां इतना वक्त कि तनिक बैठकर पूछ लें, थोड़ी राय लें लें, पड़ोसी तो गैर हुये अपनों को भी बिन मांगे नसीहतें दो तो ऐसे घुड़कते हैं, जैसे दुनिया भर के पाण्डित्य और नीति शास्त्र में शोध कर लिया हो । कुछ कहने का शुरू करो इसके पहले ही एक ही वाक्य में पूरी बात कैंची की तरह कतर देते हैं, कहे देते हैं, बाबूजी आप नहीं समझ पाओगे । अरे! जिन औलादों को पाला पोंसा बोलना, चलना,हंसना और समाज में उठना-बैठना सिखाया वे ही जब कहते हैं कि ये बस का नही ंतो मन करता है खींचकर तमाचे जड़ दूं, पर मन की पीड़ा मन में दबा कर रखने में ही बुढ़ापे में भलाई है। रामधीन मन ही मन बुदबुदाते हुये सोंच रहा था, सचमुच बुढ़ापा नरक का प्रवेश द्वार है, नरक के सारे रास्ते बस यहीं से होकर जाते हैं। ना शरीर में वो ताकत और ना घर में दो कौड़ी की कीमत। स्वाभिमान को दीवार में लगी खूंटी में टांगकर बची खुची जिंदगी घुट-घुटकर जी लो, नहीं तो मौत तो दोस्ती के लिये किनारे खड़ी ही होती है। वह सोंच रहा था कि कैसे एक पिता उन्ही बच्चों के जन्म पर बाजे-गाजे बजवा खुशियाँ मनाता है, मिठाईयां बांटता है, लोंगों के सामने इतराते हुये बांहों के झूले बना नाच-नाचकर सबको दिखाता है कि देखो ये मेरा बेटा है, बड़ा होकर मेरा नाम रोशन करेगा और वही बेटे जब जवान होकर दुलत्ती मारते हैं तो एक बूढ़े पिता को कितना दुख होता होगा? आज वह उस पीड़ा को महसूस कर रहा था । उसे इस बात का भी अहसास हो रहा था कि एक पिता अपने सभी संतानों की हर ख्वाईश , हर जिद्द अपनी हैसियत से आगे बढ़कर पूरा करता है, पर सभी संतान मिलकर एक पिता की न्यूनतम आवश्यकता की भी पूर्ति नहीं कर पाते।रामधीन कभी बुढ़ापे की अपनी अवस्था को कोसता तो कभी बदली हुई परिस्थितियों को जी भरकर गालियां देता।
रामधीन के खाट के चारों ओर शोक का माहौल था। बेटे मंुह लटकाए हुये खड़े थे, बिस्तर पर पड़े रामधीन को देखने आने जाने वालों पड़ोसियों का सिलसिला थम नहीं रहा था,सभी से बड़ा बेटा ही मिल रहा था, कह रहा था- बस चाचा, अंतिम समय है, चलो अच्छा है, ज्यादा सेवा नहीं कराये वरना खाट पर महीनों पचते तो कहां इतनी फुर्सत थी कि हम नौकरी भी देखें और इधर भी। छोटा बेटा दही और गंगा जल हाथ में लेकर बड़े भाई से कह रहा था -भैया, इसमें तुलसी की पत्तियां मिलाकर जल्दी पिला दें वरना कहीं ऐसा ना हो कि बिना दही और गंगा जल लिये बाबूजी के प्राण छूट जायें । जब दोनो ने मिलकर पिता को खाट से जमीन पर लिटाया तो बहुएं बिलख-बिलखकर रोने लगीं , उनके विलाप को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे रामधीन स्वर्ग सिधार गया हो। इसी बीच छोटी बहू एक मरही सी पतली दुबली बछिया को खींचते हुये रामधीन तक लाने का प्रयास करते हुये अपने पति से कहने लगी - अजी सुनते हो! बाबूजी को बछिया के पूंछ छुआ दो, बैतरणी पार करने में मदद मिलेगी, वह बछिया को बड़ी ताकत से खींच रही थी, लेकिन बछिया थी कि अपनी जगह से टस से मस नहीं हो रही थी,बड़ी बहू ने मदद करने की कोशिश करते हुये बछिया को थोड़ा धक्का क्या दी, बछिया वहीं धड़ाम से गिर गयी और एक ही झटके में दम तोड़ दी । रामधीन यह सब बड़े इत्मीनान से देख रहा था । जिंदगी भर पाई-पाई जोड़ अपने बेटों के लिये महल खड़ा करने वाले रामधीन को जीते जी ना तो पेट भर खाना नसीब हो सका और ना मरते समय भली चंगी बछिया के पूंछ की कोई आस दिखायी दे रही थी।
घर में पूरा माहौल गमगीन था, सुबह से ही भजन कीर्तन कराये जा रहे थे, पंडित मनसुख को भोर में ही गीता सुनाने के लिये बुला लिया गया था और कह दिया गया था कि बाबूजी के प्राण छूटते तक लगातार गीता पाठ का क्रम चलता रहे, पंडित मनसुख श्लोको का भावार्थ बताते हुये रामधीन को मृत्यु के भय से निजात दिलाने का प्रयत्न करते हुये कह रहे थे, कि मृत्यु शोक का विषय नहीं है, और ना ही इससे किंचित मात्र भी भय की आवश्यकता है। वे कह रहे थे, जैसे मनुष्य पुराने कपड़ों को त्यागकर नये कपड़े धारण करता है, वैसे ही यह आत्मा भी पुराने शरीर को त्यागकर नये शरीर धारण करती है।
सुबह से ही बड़े बेटे ने दो पहलवान से दिखने वाले हट्टे कट्टे जवान मजदूरों को कंधा देने के लिये मजदूरी पर बुला लिया था, बांस की लकड़ी से चिता बना ली गयी थी, बड़ा बेटा चिता को उलट पलट कर देखते हुये कह रहा था कि जरा बीच में एक लकड़ी और डाल दो, बाबूजी थोड़े हट्टे कट्टे हैं। कफन के कपड़े पहले ही रामधीन के सिरहाने पर रखी हुई थी ।
बड़ा बेटा पिता के पास बैठकर अपने भाई के साथ पूरे तेरह दिन तक आयोजित होने वाले कार्यक्रमों की रूपरेखा तैयार कर रहा था। छोटू की शादी के बाद एक अर्से से घर में कोई समारोह भी तो आयोजित नहीं हुये थे, इस बीच परिस्थितियां कितनी बदल गयीं पर अपनी भव्यता दिखाने का कोई अवसर ही हाथ नहीं आया था, सो इस बार वे बता देना चाहते थे कि उनकी हैसियत गांव में किसी से कम नहीं है । टेंट के आर्डर पहले ही दे दिये गये थे । हलवाई को पास बिठाकर पूरे तेरह दिन के मीनू के बारे में समझाया जा रहा था।बड़ा बेटा मनोज हलवाई को समझाते हुये कह रहा था - खानपान में किसी प्रकार की कोई कमीं ना रहे, अभी नौ दिन तक तो केवल खिचड़ी ही बनानी होगी, रिवाज है, आखिर पालन तो करना होगा ना, लेकिन खिचड़ी भी मूंगदाल मिलाकर तीन तरह की होगी। साथ ही यह बात भी ध्यान रखना होगा कि जो खिचड़ी नहीं खाना चाहते उनके लिये विकल्प के तौर पर छोले, पूड़ी, गाजर का हलवा और दाल चांवल की भी व्यवस्था हो । कहीं ऐसा ना हो कि रिवाज के चक्कर में एकाध को अस्पताल ले जाना पडे़ और लेने के देने पड़ जायें। दसवें दिन और तेरहवें दिन के लिये विषेश व्यवस्था रहेगी। मीठे में छः प्रकार के आईटम होंगे - गुलाब जामुन, मूंग का हलवा, काजू की बरफी, इमरती और खीर के साथ ही छः प्रकार की सब्जियां होंगी । सब्जियों में पालक पनीर और कोफते की सब्जी अनिवार्य रूप से हाने चाहिये,ये बाबूजी को बहुत पसंद थे। मुझे अच्छी तरह याद है जब हम जब छोटे थे, तब बाबूजी तनख्वाह मिलने पर हर महीने की पहली तारीख को हमें रेस्टोरेंट जरूर ले जाया करते थे । अच्छा, हां खाने में पूड़ी के साथ जीरा फ्राई चांवल और पुलाव जरूर होने चाहिये । तेरह ब्राह्मणों के लिये लिये विषेश व्यवस्था होगी, उन्हे मोहनभोग और रसमलाई अतिरिक्त रूप से परोसे जायेंगे। फल में आम, सेब और अंगूर जरूर होंगे,भले ही अभी आम की सीजन नहीं है पर चाहे जितने महंगे मिलें पर्याप्त मात्रा में परोसे जायें, पैसे की कोई चिंता नहीं है। आसपास के सारे भिखारियों को भरपेट भोजन कराये जायें ताकि बाबूजी की आत्मा को पूरी तरह शान्ति मिल जाये।
रामधीन जमीन पर लेटे हुये अपने बेटे की बात बड़े गौर से सुन रहा था। इतनी सारी खाने की चीजों के नाम सुनते ही मुह में पानी आने लगा, बरसों से जीभ इन पकवानों के स्वाद के लिये जैसे तरस सी गयी थी, आंते भूख में अकुला कर पूरे चार इंच सिकुड़ गयी थी । थोड़ी देर के लिये मन में विचार आया कि कह दे, बेटा मेरी तेरहवीं जीते जी क्यों नहीं कर देते ? मैं भी छककर खा लेता और जीते जी ही मेरी आत्मा को शान्ति मिल जाती। सूखी लकड़ी की तरह सूख चुके इस हड्डी के ढांचे में फिर से एक नयी जान आ जाती और दो चार साल इस दुनिया को थोड़ा और देख लेता । पर मन की बात जुबां तक आयी भी तो बोलने की हिम्मत ही कहां थी? ले-देकर हिम्मत जुटा इशारो से कुछ बोलने की कोशिश की भी तो छोटी बहू ने तपाक से गिलास मुह में ठुंसते हुये वहंा बैठे लोगों पर बिफर पड़ी, कहने लगी- अरे!सब कितने निर्दयी हो, बाबूजी जब से पानी मांग रहे हैं पर सब अपने-अपने में मगन हैं किसी को परवाह नहीं है, रामधीन इधर-उधर मुंह बिदकाता रहा पर छोटी बहू ने पानी पिलाकर ही दम लिया । खुद पर इतराते हुये अपने पति से कान पर कहने लगी - अजी, आपने देखा मैं कितनी पुण्यात्मा हूं, तभी तो बाबूजी को अंतिम बार पानी पिलाने का सौभाग्य मुझे मिला है । पर रामधीन तो सिर्फ उन लजीज पकवानों के स्वाद को महसूस करता हुआ उन क्षणों की यादों में खोया हुआ था, जब रिटायरमेंट पर उसे एक शानदार पार्टी दी गयी थी । बड़े -बड़े तीन रसगुल्ले खाये थे। बोस ने कितनी बार कहा होगा दो और खा लो पर जैसे उस दिन हिम्मत ही नहीं हुई । रसगुल्लों की याद आते ही मुंह से लार बहने लगा।
बड़ी बहू वहीं पास में सिरहाने पर बैठी कफन की लंबाई- चौडाई नाप रही थी। कभी वह रामधीन को अपने हाथ की लंबाई से नापती तो कभी कफन को बित्ते से, देख रही थी कि कहीं से छोटा ना पड़ जाये। मुंह से लार बहता देख छोटी बहू से कहने लगी - छुटकी, बाबूजी के मुंह से तो अब लार बहने लगा है। कहते हैं जब अंत समय निकट होता है तो मुंह से लार बहता है, कभी-कभी झाग भी आने लगता है। छुटकी, तुम देर मत करो , जाओ और जल्दी से कंडे सुलगा लो, हवन में जरूरत पड़ेगी और हां पिण्डदान के लिये थाली में पूरे सामान तैयार कर लो।
लेकिन छोटी बहू, जेठानी की बातों में कम अपने जेठ की योजनाओं के खाके तैयार करने पर ज्यादा लगी हुई थी। वह देख रही थी कि पंडितजी को दिये जाने वाले दक्षिणा के बारे में बहस चल रही है, वह भी उस बहस में कूद पड़ी । तू-तू, मैं-में होने लगी, वह इस बात पर अड़ गयी कि पंडित जी को दक्षिणा में सोने की अंगूठी देने की कोई आवश्यकता नहीं है, केवल चांदी के चम्मच से काम चल जायेगा । पास में गीता सुनाते बैठे पंडित जी का ध्यान दक्षिणा के बारे में होते बहस को देखकर बंटने लगा, सारे श्लोक उल्टे -पुल्टे होने लगे, भावार्थ बताते हुये अर्थ का अनर्थ कहने लगे । एक श्लोक का अर्थ बताते हुये कहने लगे- जीवन एक शाश्वत सत्य है, मरने के बाद भला किसने देखा है कि अगला जन्म होगा या नहीं, इसलिए समस्त भोग विलास इस जन्म में ही मृत्यु के पूर्व कर लेने चाहिये । पास बैठे शोकमग्न पड़ोसी पंडित मनसुख के भावार्थसे भौंचक्के रह गये, वे कुछ टोका-टाकी करते इसके पहले ही पंडित जी गीता बंद कर उस बहस में कुदते हुये कहने लगे- देखिये भाई साहब , ऐसे काम नहीं चलेगा, मृत्युकर्म के समय दान में सोना देना अनिवार्य होता है , यही नहीं बल्कि रिवाज तो यह भी है कि व्यक्ति मृत्यु के समय जो आभूषण पहने होता है उस पर भी पुरोहित का अधिकार होता है, उसे किसी भी प्रकार से घर में पुनः रखना शास्त्रों में निषिद्ध और पापकर्म माना गया है ।
इतना सुनना था कि बहुओं के कान खड़े हो गये, उनका ध्यान झट उन आभूषणों की ओर चला गया, जो रामधीन उस समय पहने हुआ था। उसके गले में सोने की एक चेन और हाथ में दो अंगूठी थी। एक अंगूठी सगाई के वक्त की थी ओर चेन भी शादी के वक्त सास ने पहनायी थी, पूरे चालीस साल हो गये थे, इस बीच जिंदगी में कितने उतार चढ़ाव आये पर क्षण भर के लिये भी इन आभूषणों को उसने खुद से अलग नहीं होने दिया । एक अंगूठी रिटायरमेंट के समय स्टाॅफ के लोगों ने बतौर निशानी बड़े सम्मान के साथ पहनायी थी । दोनो बहुंये उन अंगूठियों को निकालने में भिड़ गयीं, रामधीन हाथ इधर-उधर हाथ हिलाता, झटकारता हुआ ना-नुकुर करता रहा पर बहुओं को ससुर की उन भावनाओं की भला क्या परवाह। एक अंगूठी जो सगाई के समय की थी निकलने का नाम ही नहीं ले रही थी, तभी छोटी बहू ने कैंची लाकर अंगूठी काट डाली और ऐसा करते हुये रामधीन के हाथ की चमड़ी थोड़ी सी कट गई, बहू ने रसोई से हल्दी लाकर कटी जगह पर मल दिया और जाते-जाते सोने का चेन भी निकाल ले गयीं ।
सब रामधीन के समीप बैठे हुये उसके मौत की प्रतीक्षा कर रहे थे, शाम होने को आयी, पड़ोसी उठ-उठकर घर को जाने लगे, पंडितजी का मन भी बिदकने लगा था। उसने अपनी पोथी पत्रा बंद करते हुये कहा- भाईसाहब मैं थक गया, पूरी गीता तीन बार सुना डाला पर इनकी आत्मा तो जैसे कहीं अटकी हुई है, निकलने का नाम ही नहीं लेती । बहुओं ने लाख मिन्नतें की पर पर पंडित जी कहां मानने वाले थे, छुटकी ने कहा- पंडित जी, थोड़ी देर और देख लीजीये, शायद कुछ ही देर में प्राण निकल जाये पर पंडित जी क्षण भर रूकने को तैयार नहीं थे । उन्होने अपनी दक्षिणा मांगनी शुरू की तो बड़ी बहू ने एक सौ एक रूपये हाथ पर धरते हुये कहा- पंडित जी कल फिर सुबह से आईयेगा। पंडितजी सौ का नोट हाथ पर देख गुस्से से उबल पड़े, नोट को बड़े बेटे की ओर फेंकते हुये कहा- अरे!क्या आप लोग पुरोहिती को मजदूरी समझ रखे हैं?तीन-तीन जगहो पर पूजा थी, दो हजार रूपये से कम नहीं मिलते पर आपके कारण मैने सब छोड़ दिया, अरे चलो किसी की आत्मा को शांति मिल जाये पर सचमुच जमाना भलाई का नहीं है, होम करो तो हाथ जलते हैं। पूरे एक हजार दीजीये, नही ंतो मैं यहां से टस से मस नहीं होउंगा, गुस्से से तिलमिलाये पंडित जी वहीं कुण्डली मारकर बैठ गये।
छोटी बहू गुस्से से फुफकारने लगी- पंडित जी, एक हजार कोई छोटा-मोटा अमाउन्ट नहीं होता, बाबूजी के फेमिली पेन्शन की महीने भर की रकम पूरे हजार रूपये होते हैं । मै सुबह से शाम तक आॅफिस में काम करती हूं, तब बड़ी मुश्किल से हजार रूपये मिलते हैं। यदि ऐसे पैसे मिलने लगे तो आदमी शहर जाकर माथापच्ची क्यों करेगा, गांव में पुराहिती ही नहीं कर लेगा ? ये लीजीये दो सौ इंक्यावन रू. कल से आपको आने की जरूरत नहीं है, हम खुद ही गीता पाठ कर लेंगे। संस्कृत हमें भी आती है ।
सबके जाने के बाद रात में बड़ी बहू ने घर में पंचायत बुला ली, इस बात पर लंबे चैड़े विचार विमर्श होने लगे कि आखिर बाबूजी की आत्मा अधर में क्यों अटकी हुई है, कहीं कुछ आखिरी ख्वाईश तो नहीं, जो बची रह गयीहो।सबने मिलकर बीते दिनों की बातों को याद करने की कोशिश की लेकिन वे किसी परिणाम पर नहीं पहंुच सके । छोटी बहू ने सुझाव देते हुये कहा- दीदी, गांवों में काला जादू बहुत चलता है, कहीं किसी डायन औरत ने बाबूजी की आत्मा को बांध तो नहीं दिया है? क्यों ना ओझा बुलाकर झांड़फूंक करा ली जाये। बात मान ली गयी, ओझा बुलाया गया पर इससे भी कुछ बात ना बन सकी। थक हारकर सब सो गये।
बड़ी मुश्किल से रात कटी। सुबह होते ही छोटी बहू ने गीता पढ़नी फिर से शुरू की लेकिन थोड़ी देर में ही पालथी मारकर गीता सुनाती छुटकी जल्दी ही थक गयी, सबने बारी-बारी से गीता पढ़ी पर ऐसा करते हुये दिन भर लग गये। इधर जमीन पर दो दिनों से लेटे हुये रामधीन के बदन की हड्डियां दुखने लगीं, ईशारे से बिस्तर पर लिटाने की इच्छा व्यक्त की तो बहुएं नाक भौ सिकोडने लगी , आपस मे एक दूसरे के कान मे खुसुर पुसुर करते हुये कहने लगी - देखों तो! कितनी ख्वाईश बची है, इस बुड्ढे के मन में जीने की ।
रामधीन वापस बिस्तर पर लिटा दिया गया। पड़ेासी वैद्य ने खिचड़ी बनाकर खिलाने की सलाह दी, खिचड़ी रामधीन के सामने रखते ही पूरे थाली भर खिचड़ी एक ही बार में सफाचट कर गया, पर वह तो गर्म तवा में पानी की कुछ बूंदों की ही तरह था। इस तरह पूरे तीन दिन बीत गये, रामधीन के मौत की बड़ी बेसब्री से प्रतीक्षा कर रही बहुओं के धैर्य की सीमाएं समाप्त होने लगीं। वे कभी भुनभुनातीं तो कभी अपने-अपने पतियों पर बरस पड़तीं ।
छोटी बहू कुछ ज्यादा ही गरम मिजाज थी । कहने लगी- चलिये जी, अपना सामान पेक करिये, हम अब और अधिक दिन तक नहीं ठहर सकते । आपको अपने छुट्टियों की परवाह ना भी हो तो मैं बिल्कुल नहीं ठहर सकती। मेरे पास इतनी छुट्टियां नहीं है कि किसी के मौत के इंतजार में बेठे-बैठे अपना वक्त गंवाती रहूं । दीदी, कुछ होने पर खबर भिजवा दीजीयेगा, वैसे मुझे नहीं लगता कि इनको अभी कुछ होगा ।पास बैठी जेठानी की ओर मुखातिब होते हुये छुटकी ने कहा।
बड़ी बहू भी क्रोध से उबल पड़ी- तो क्या हमने ठेका ले रखा है?अभी कुछ दिन पहले बाबूजी पूरे एक हफ्ते हमारे घर पर रूके थे, हमने सेवा की थी, तुम अपने पास एक दिन तो रखकर देखो।
दीदी, अब जाते-जाते मेरा मुंह ना खुलवाओ । छुटकी ने सामान ब्रीफकेस में समेटते हुये कहा।
हां, बोलो-बोलो। तुम क्या कहना चाहती हो, कहो ना, रूक क्यों गयी। बड़ी भी तमतमा गयी ।
दीदी, जिंदगी भर बाबूजी की जमा पूंजी लूट-लूट कर आप खाती रहीं, मेरी शादी के पहले तक तो आप ही कर्ता-धर्ता थी ना, अब आप नहीं करोगी तो क्या पड़ोस का रामलाल बाबूजी की गंदगी उठाने आयेगा।
देखो छुटकी तुम हद से ज्यादा बोल रही हो, अपनी जुबान पर लगाम रखो, वरना ठीक नहीं होगा।
दोनो बहुओं की तनातनी को देख भाईयों ने हस्तक्ष्ेाप करने की कोशिश की पर दोनों नाकाम रहे। दोनो ही झूमाझटकी पर उतर आये, पड़ोसियों ने शांत करने की कोशिश की तो मामला ले-देकर शांत हुआ, पर दोनो उसी वक्त बंटवारे की जिद्द पर अड़ गयी, बेटों ने भी इस झंझट से सदा-सदा के लिये मुक्ति पाने, बंटवारे पर अपनी मुहर लगा दीं ।पड़ोसियों ने समझाया कि पिता मृत्यु शैय्या पर पड़े हुये हैं,ऐसे मौके पर बंटवारा उचित नहीं होगा। पाई-पाई जोड़ने वाले पिता को अपने ही कमाये धन के बंटवारे पर सर्वाधिक कष्ट होता है। थोड़ी प्रतीक्षा और कर लो, अब इतने दिन धीरज रखा तो थोड़े दिन और सहीं ।
पर छोटी बहू थी, कि अड़ गयी, पड़ोसियों पर ही भड़क गयी, कहने लगी- अरे!इनको कुछ नहीं होगा चाचा। अभी सारे पाप निकलेंगे। पुण्यात्मा होते तब ना जल्दी मौत मिलती। सब यहीं दिखता है, स्वर्ग नरक सब यही है। हमारे प्रति सौतेला व्यवहार करते रहे, भगवान उसका भी तो फल देगा ना, चाचा । हम जिंदगी भर किराये के मकान में रहते रहे, पर कभी इन्होने नहीं कहा कि जाओ जमीन बेचकर एक बडा सा फ्लेट खरीद लो, आखिर मकान मालिक की खरी-खेाटी कब तक सुनते रहोगे। गांठ से एक आने नहीं निकले और बड़े भाई साहब यहां से बोरे में भर-भरकर राशन ले जाते रहे पर हमने कभी कुछ नहीं कहा। दोनो मिलकर कमाते हैं, तब बड़ी मुश्किल से गुजर चलती है।
बंटवारे की जब बात आयी तो खेत-खलिहान, घर सब बांट लिये गये । कपड़े, लत्ते और चादर भी बंाट लिये गये,एक नया चादर अतिरिक्त बच गया वह भी कोई किसी को देने को तैयार नहीं हुआ, आखिर में बीच से फाड कर वह भी आधा-आधा बांट लिया गया । आभूषणों की जब बारी-बार आयी तब रामधीन के जनेउ से चाबी निकालती बड़ी बहू जब थक गयी तो छोटी बहू ने जनेउ को ही कैंची से कुतर दिया और दोनो मिलकर सारे गहने बंाट डाले ।
रामधीन अपनी आंखों के सामने अपने खुद की मेहनत के बल पर खड़ी की गयी इमारत की नींव को ढहते हुये देख रहा था।उसके सपनों का महल उसके सामने तार-तार हो रहा था और वह बिस्तर पर असहाय पड़ा था ।दोनों बेटों के बीच बंटवारा तो हो गया पर पिता के मसले पर कोई बात ही करने को तैयार नहीं था । पड़ोसियों ने उन्हे लाख समझाया कि वृद्धावस्था में पिता का पालन पोषण भी आखिर उनका ही कर्तव्य है, उसे भी इस अवस्था में अपने संतान की तरह समझना चाहिये। दोनों में से कोई भी रख ले, यह तो पुण्य का काम है।
दोनो भाई इतना सुनते ही एक दूसरे का मंुह ताकने लगे। बड़े बेटे ने कहा - ऐसा करें, हम दोनो बारी-बारी छःछः महीने रखा करेंगे ।
पर, छोटी बहू फिर भड़क गयीं, कहने लगीं - हम इतने ठलहे नहीं हैं कि घर में इनकी गंदगी उठाते फिरें, जहां पाये वहीं थंूक दिया, जहां बैठे वहीं मक्खियां भिनभिनाने लगीं। सौ रूपये का खाना और एक आने का काम नहीं । मैं ये सब फालतू काम नहीं कर सकती । आप अपने घर रखिये, वैसे भी बाबूजी को फेमिली पेन्शन के हजार रूपये मिलते ही हैं, सरकार वृद्धावस्था पेन्शन के नाम पर भी अलग से ढाई सौ रूपये देती है, इन्हे आपके एहसान की जरूरत नहीं हैं।
लेकिन बड़ी बहू भी तैयार नहीं हुई, कहने लगीं - हम बेकार का आफत मोल नहीं लेंगे, इससे अच्छा इन्हे किसी वृद्धाश्रम में रख दो, चार बूढे़ लोगों के बीच रहेंगे, मन भी बहलेगा ।
बात दोनो बेटो को जंच गयी पडोसी कुछ कहते तो वो तो इनकी तू-तू मै-मै देखकर पहले ही जा चुके थे. दोनो ही सामान समेट अपने-अपने घर को जाने लगे, तय हुआ कि बड़ा भाई मनोज जाते समय शहर के एक वृद्धाश्रम "बसेरा" में पिता को छोड़ आयेगा । मनोज ने सामने की सीट पर रामधीन को बिठाया और पीछे की सीट पर अपनी पत्नी और नन्हे से बेटे को।
कार गेट के सामने खड़ी कर वहां की सारी औपचारिकताएं पूरी कर पिता को चौखटतक छोड़ते हुये बेटे मनोज ने कहा- बाबूजी, माफ करना, मशीन सी जिंदगी में बिल्कुल भी वक्त नहीं है, प्लीज बाबूजी बुरा मत मानना ।रामधीन की आंखों में आंसू भर आये, वह खड़ा हुआ एकटक मनोज को देखता रहा।
रामधीन आज बहुत दुखी था, उसे स्वयं पर बड़ी ग्लानि हो रही थी, वह इस बात पर गहन आत्ममंथन कर रहा था कि आखिर संतानों को संस्कार देने में उससे कहां चूक हो गयी? कैसे वह उन पुत्रों के लिये बोझ बन गया, जिनकी जिम्मेदारी को उसने हंसते-हंसते निर्वहन किया, उनकी खवाईशो को अपने शौक के तंदूर से उम्र भर सेंकता रहा,अपनी जिव्हा की तृप्ति को उनके हलक के नीचे उतरे हुये निवालों में महसूस करता रहा, उन बेटो के तनिक उफ पर उसने अपनी कितनी राते स्याह कर डाली, उसे वे क्षण याद आ रहे थे जब बच्चों की किताबों के लिये महाजनों के दरवाजों पर अपने स्वाभिमान की पगड़ी उतारकर कितनी बार उसने गिरवी रखी होगी पर कभी घर में किसी को तनिक भी आभास नहीं होने दिया।
वह बड़ा उदास हो गया, उसने रात में ही उस वृद्धाश्रम को छोड़ दिया और हांफते हुये किसी तरह वापस अपने गांव आ गया। एक वृद्ध पिता को भोजन की अतृप्त लालसा तो मौत नहीं देती, लेकिन अपनों की उपेक्षा उसे अंदर तक तोड़ डालती है, वृद्धावस्था में हर कदम पर चोंटिल होता उसका स्वाभिमान उसे मुर्दा बना देता है। वह आंसुओं से नहीं हृदय की गहराईयों से रोता है, उसके अंदर की जीने की सारी लालसा वहीं समाप्त हो जाती है जहां पर संतान उसे बोझ समझने लगते है।
उसकी सारी संपत्ति जिसे बेटों ने अपने बीच मौखिक तौर पर विभाजित कर लिया था, को रामधीन ने एक सिरे से खारिज करते हुये पूरी संपत्ति बेचकर एक ट्स्ट के हवाले कर दिया। बचे हुये रूपयों का उन्होने कई कमरों का एक बड़ा सा मकान बनवा दिया और गांव के प्रधान से आग्रह किया कि उसके मरने पर दाह संस्कार गांव के लोग ही कर दें, बेटों को खबर देने की आवश्यकता नहीं है। उस नये मकान की चाबी प्रधान को देते हुये उसने अनुरोध किया कि उसका बेटा जब गांव आये तो उसे यह चाबी सौंप दीजीयेगा ।
बेटा मनोज जब खेती बाड़ी की बुआई के सिलिसिले में घर आया तो घर पर टंगे एक बड़े से बोर्ड को देख हक्का बक्का रह गया, बोर्ड पर लिखा था - यह जमीन स्वर्गीय रामधीन की याद में बनाये जाने वाले स्कूल भवन और प्रांगण के लिये प्रस्तावित है।
गांव के प्रधान से मुलाकात की तो उसने सारी बातें बताते हुये कहा- यह सब उनकी अंतिम इच्छा के अनुरूप किया गया है, उन्होने नये मकान की चाबी आपको देने को कहा है।
मनोज चाबी लेकर उस बड़े से मकान में जैसे ही प्रविष्ट हुआ, बरामदे में मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था - बेटे, मैं एक पिता हूं और कोई भी पिता अपने अंतिम क्षण तक सिर्फ संतानों के लिये जीता है। मैं कभी नहीं चाहूंगा कि मैने तुम लोगों से जो उपेक्षा बर्दाश्त की, बहुओं के तीखे शब्दों के जो जख्म सहे, वह तुम दोनों को अपने बेटे और बहुओं से सहना पड़े । एक पिता अपना दुख तो हंसकर बर्दाश्त कर लेता है, पर संतानों को होने वाले किसी कष्ट की कोई छोटी सी कल्पना भी उसे अंदर तक झकझोर देती है। मैं यह मकान तुम्हे उस समय के लिये सौंपकर जा रहा हूं जब तुम बूढे हो जाओ और तुम्हारे संतान तुम्हे बोझ समझने लगें तो इसे एक वृद्धाश्रम का रूप देकर उन सबके लिये सहारा बनने की कोशिश करना जिनके बेटे तुम दोनों की तरह अधिकार की चेष्टा तो करते हैं पर कर्तव्यों को कहीं ना कहीं समय के प्रवाह मे भूल जाते हैं ।
बुधवार, 3 जून 2009
”अस्तित्व “
प्रकृति में प्रिय की तलाश के उन क्षणों में मेरी कल्पना और उन अद्भुत पलों में मेरे समस्त अंगों से प्रस्फुटित प्यार, दिनकर की उन सुनहरी किरणों के समक्ष इर्र्ष्या की अनुभूति कर रही थी। उस समय यदि मैं समस्त चराचर जगत के सौंदर्य का दर्शन उस भानु में कर पा रही थी, तो मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वह भी ठहरा हुआ सा मुझमें अपनी प्रेयसी शशि के शीतल स्वरूप की तलाश करता टकटकी लगाये देख रहा है और उन सुंदर हीरक पलों को जीती हुई मैं भावविभोर हा,े ऐसे सुंदर मनोहारी दृश्य का आनंद लेती हुई, शब्दों के ताने बाने में उलझी, उस प्रकृतिगत् सौंदर्य को बयां करती कुछ पंक्तियों की तलाश में इन्ही कल्पनाओं के इर्द गिर्द भटक रही थी ।
किंतु क्षण भर के ही धूप ने मेरे गौर वर्ण को विचलित सा कर दिया और मैं उस दिवाकर की ओर पीठ दिखाकर बैठ गयी। मेरा यह कृत्य उसे मुंह चिढ़ाने सा लगा और अपने प्रेयसी के वियोग में व्याकुल किसी हाथी की तरह वह अपनी सादगी को रौद्र रूप में परिवर्तित करता हुआ, मेरे सामने रख्ो मेज पर पुष्पित एक नन्हे से कुसुम पर अपना कहर बरसाता, झुलसाने लगा। मुझे यह सब नागवार गुजरा और मैंने बालकनी की खिड़की बंद कर अपनी डायरी और कलम उठा फिर से उन कल्पनाओं में खो गयी जहां से मां सरस्वती की आराधना कर मैं किन्ही शब्दों को शून्य से लाकर पंक्तियों के माध्यम से कोई स्वरूप प्रदान करने की चेष्टा किया करती ।
मैं प्रातः की उस मधुर बेला में खोयी हुई अपनी सुंदर कल्पना को साकार रूप देने का प्रयत्न कर रही थी, शब्दों को तोड़ मरोड़ अलंकारिक रूप देने के उसी उपक्रम के बीच मेरे नन्हे बेटे की तोतली बोली ने मेरी एकाग्रता भंग कर दी, उसकी कोई भी तुतलाती टूटी फूटी बोली मेरे दिन भर की मेहनत के उपरांत खोजे किसी एक अलंकारिक शब्द से मेरे लिये कहीं ज्यादा कर्णप्रिय हुआ करतीं। मेरी तमाम तरह के मेहनत के उपरांत सृजित सारी कविताएं उसके केवल एक शब्द मां के सामने जैसे नतमस्तक सी हो जाया करतीं। उसकी बालसुलभ हरकतों और उच्चारित ध्वनि गीत मां के समक्ष मैं स्वयं को सदैव एक बौने कवियित्री के रूप में पाती।
वैसे भी मेरा बेटा इर्श्वर का दिया मेरे लिये सबसे अनुपम उपहार के रूप में था और मेरी सबसे उत्तम रचना भी । अपने बेटे को अपनी एक सर्वोत्तम रचना कहते हुये मुझे कवि हरिवंश राय बच्चन के वे शब्द अनायास याद हो आते जब उनसे किसी पत्रवार्ता में पूछा गया था कि आपकी नजर में आपकी श्रेष्ठ किसी रचना का नाम बताइए तब उन्होने बड़ी गंभीरता व गर्व से अमिताभ जी का नाम लेते हुये उन्हे अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति बताया था ।
बेटे ने मेरे गोद में सिमटते हुये अपनी तोतली बोली में कहा - मम्मी जी, पापा आपको नीचे बुला रहे हैं ।
मैने अपने बेटे को गोद में उठाते हुये बड़े प्यार से कहा-बेटा, पापाजी से कहना, मम्मी जी बस थोड़ी देर में आ रही है। पापा से यह भी कहना कि किचन में केतली में मैंने चाय बनाकर रख दी है, वे पी लें। फिर थोड़ी देर में मम्मीजी बेटा और पापाजी के लिये गरमागरम नाश्ता बनायेंगी। ठीक है ... ऐसा कहते हुये मै अपने नन्हे से बेटे पर चुंबनों की बरसात करने लगी। मेरा बेटा मेरे चुंबनों से गद्गद् प्रतिदान स्वरूप मुझे कुछ लौटाने की अधीरता से खुसफुसाने लगा मैं उसके हावभाव को भांप गयी और उसे अपने बाहुपास से मुक्त कर अपने आंचल को ठीक करने लगी। मेरे बेटे ने मेरे गालों पर जब लगातार तीन चुंबन लिये तो उस चुंबन ने मुझमें ऐसी उर्जा का संचार किया जो मुझे दिन भर की होने वाली थकान से राहत दिलाने के लिये पर्याप्त थी और ऐसा लगा जैसे किसी भी तरह की विपरीतता से निपटने की एक प्रकार से शक्ति मिल गयी हो ।
अपने बेटे को जीने के प्रथम पायदान तक विदा कऱ फिर से उन कल्पनाओं में मै खो गयी जहां किसी शब्द को एक पथ पर अधूरे स्वरूप में छोड़ आयी थी, उन शब्दों को कुछ श्रृंगारिक छंदो और किन्हीं रसों से अलंकृत करने का प्रयत्न बस कर ही रही थी कि अचानक एक कर्कश ध्वनि ने मेरे कलम के प्रवाह पर विराम लगा दिया ।
आशा, तुम्हें जब से बुला रहा हूं, तुम्हें रत्ती भर फर्क नहीं पड़ता! आखिर तुम क्या बताना चाहती हो? क्या तुम यह कहना चाह रही हो कि तुम कोई महादेवी वर्मा जैसी महान कवियित्री बन गई हो? तुम सिर्फ कल्पनाओं में जीती हो, यथार्थ से तुम्हें कोई लेना देना नहीं? सुबह से सारे काम पड़े हुये हैं, बाई तीन दिनों से काम पर नहीं आ रही, मुझे सुबह 10 बजे ऑफिस जाना है, दिन भर की भागती दौड़ती दिनचर्या के बीच सुबह सुबह कलम और डायरी पकड़कर बैठ जाती हो। तुम्हें न तो मेरी परवाह है और न ही इस बच्चे की।
सुधीर, बस केवल दस मिनट यार, थोड़ा धीरज रखा करो, कुछ पंक्तियां दिमाग पर कौंधने लगी थीं उन पंक्तियों को मैं यदि डायरी में कोई स्वरूप ना देती तो फिर वे कहीं खों जातीं, और तुम इतना तो समझते ही होगे कि जो शब्द एक बार शून्य में खो जाती हैं वे फिर दोबारा वापस नहीं आतीं । मैंने बड़े ही ध्ौर्य से अपने पति के गुस्से को शांत करने का प्रयत्न किया ।
उसके बाद भी तुम बकवास करती हो, तुम्हें केवल अपनी पड़ी है, तुम सिर्फ अपने लिये जीती हो, अरे दो चार पंक्तियों के लिखने से कोई साहित्यकार और कवि नहीं बन जाता, और यदि ऐसा ही होता ना आशा, तो परचून की दुकान वाला भी कवि सम्मेलन में अपनी कविता पाठ किया करता, तुम्हारी तरह चंद पंक्तियां तो आखिर, वो भी गुनगुना लेता होगा ना...। आशा, तुम्हें शायद पता नहीं कि ठूंठ पर फूल नहीं खिला करते।
एक ही सांस में इतनी सारी उलाहनाएं सुनकर मैं क्रोध से अपने होंठों को कुतरते हुये डायरी को वहीं मेज पर रख बिना कुछ बोले सीढ़ियों से उतरने लगी। मेरी तनी हुई भृकुटी, बिखरे हुये केश और माथ्ो पर तनाव से उभरी हुई नसों की लकीरें उस क्षण मेरे अंतर्मन में छिपे क्रोध को प्रतिबिंबित कर रही थी, म्ौं अपने लंबे बिखरे हुये केश को जूड़ें के रूप में समेटते हुये शीघ्रता से किचन की ओर प्रस्थान करने लगी।
मैं मौन थी और जानती थी, कि यह इन क्षणों के लिये एक सर्वोत्तम औषधि है। वास्तव में मैं प्रातः के वक्त किसी भी प्रकार का तनाव मोल नहीं लेना चाहती थी, मैं इस बात से वाकिफ थी कि मेरी थोड़ी भी प्रतिक्रिया न केवल मेरे दिनभर की जीवनचर्या को बुरी तरह प्रभावित करेगी बल्कि बेवजह का वाद विवाद अनावश्यक तूल पकड़ेगा और एक संघर्ष का उद्भव होगा जो मैं किसी भी कीमत पर नहीं चाहती थी। मैं प्रसिद्ध समाजशास्त्री मेक्सवेबर के इस कथन को अपने एवं आसपास के दैनिक अनुभवों से भली भांति परख चुकी थी कि हर संघर्ष की समाप्ति समझौते के एक बिंदु पर आकर होनी है और जब समझौते पर ही किसी विवाद या संघर्ष को समाप्त करना है तब फिर इसकी शुरूवात ही क्यों ?
पिता को बाल्यावस्था में ही खो देने के पश्चात मैने मां के रूप में एक दैवीय शक्ति को बहुत करीब से उस सामाजिक ताने बाने और कुव्यवस्था के विरूद्ध संघर्ष करते देखा था, जिसमें एक स्त्री को उसकी हदें बताकर किस तरह उसके कद को बौना करने का प्रयत्न किया जाता है, क्रोध और अपमान के विष को एक कड़वे घूंट के रूप में शिव सदृश हलक में ही रोक कर रखने की महारत मैने लड़कपन में ही हासिल कर ली थी । मां से बचपन में सीख्ो हुये ये गुर, मुझे कई विपरीत परिस्थितियों में बड़ा संबल प्रदान किया करतीं।
यद्यपि मैं पूरी तरह संयत थी, लेकिन गुस्से में समेटे जा रहे कुछ कार्यों से मेरे क्रोध प्रतिबिंबित हो रहे थ्ो, और मेरी यह गंभीर त्रुटि मुझे समझ में भी आने लगी थी, मुझे जैसे ही इसका आभास हुआ मैं स्वयं पर नियंत्रण करने का प्रयास करने लगी, तभी पीछे से मेरा हाथ पकड़ते हुये सुधीर ने जब मरोड़ने का प्रयत्न किया तो मेरे दाहिने हाथ की कुछ चूड़ियां टूट कर बिखर गयीं ।
उन्होने गुस्से से कहा - आशा तुम कुछ ज्यादा ही रियेक्ट कर रही हो, तुम अपनी हदें पहचानो, तुम्हें शायद यह मालूम नहीं, कि तुम्हारी ये हरकतें तुम्हें नुकसान भी पहुंचा सकती हैं ।
अब मेरे ध्ौर्य की सीमाएं समाप्त हो गयी थीं, मैने अपने हाथ को झटके से छुड़ाते हुये कहा - देखो सुधीर मैं चुप हूं, इसका तुम नाजायज फायदा न उठाओ, मेरे ध्ौर्य की सदैव परीक्षा ना लिया करो, आखिर क्या मिलता है तुम्हें इस तरह के हाथापाई से ? तुम यह सब कर आखिर कैसी मर्दानगी दिखाना चाहते हो ? अरे सही में मर्द हो तो जाओ, सीमाओं पर जाकर सैनिकों की तरह मुकाबला करके दिखाओ। औरत पर हाथ उठाने वाले मर्द नहीं होते सुधीर, और रही बात जहां तक तुम्हारे ऑफिस जाने के वक्त तक भोजन तैयार करने की, तो वह मै रोज कर ही लेती हूं ।
मेरी यह तीखी टिप्पणी, उसके मर्दानगी को ललकार गयी और प्रत्युत्तर में मेरे गालों पर पड़े एक जोर के थप्पड़ ने मुझे चारों खाने चित्त कर दिया, उस झन्न की घ्वनि और विद्युत के तरंगों की भांति एक जोर के झटके ने पूरे शरीर में कंपन सा पैदा कर दिया। मैं उन क्षणों में एकाएक घटे उस अनपेक्षित घटना से स्तब्ध थी और गालों पर हाथ रख्ो सुधीर की ओर एकटक देखती रही, इस बीच मेरा बेटा जो बड़ी देर से हमारे बीच की कहासुनी को देख रहा था, मेरे आंचल में सहमा सा आकर रोते हुये सिमट गया । वह डर से चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा और कहने लगा - पापा, मत मारो मम्मी को।
वैसे, यह सब पहली बार नहीं हुआ था और न ही इस तरह की हाथापाई मेरे लिये कोई नई घटना ही थी, यही नहीं मेरे इस तरह की पीड़ा पर मेरे नन्हे से बेटे का करूण क्र्रंदन भी हम दोनों के लिये किसी तरह का अचरज का विषय नहीं था। वह रोज इस तरह की सुधीर की हरकतों को देख विचलित हो रोया करता और मैं उसे पुचकारते हुये अपनी गोद पर ले उन पलों में उसे बहलाने का प्रयत्न किया करती।
सुधीर की इस तरह की हरकतों को देख मेरा बेटा हर बार मुझसे पूछा करता - मम्मी, पापा आपको क्यों मारते हैं ? और प्रत्येक बार मैं उसके इस अनुत्तरित सवालों के जबाव में उसे क्षण भर अपलक मौन हो देखती और फिर उसे चूमते हुये अपने चेहरे पर हल्की मुस्कुराहट बिख्ोर, उसके साथ लिपट जाया करती । मेरे बेटे का बालमन मेरे इस मौन उत्तर से भले ही संतुष्ट ना होता रहा हो, पर वह मेरी मुस्कुराहट के समुंदर में स्वयं को पूरी तरह समाहित कर, अपने प्रश्न सहित स्वयं का अस्तित्व सदैव थोड़ी देर के लिये इन क्षणों में भूल जाया करता ।
ऐसे किसी वेदना के क्षणों में संतान का निश्छल प्यार, किसी भी स्त्री के लिये दैवीय वरदान से कम नहीं हुआ करता। यदि एकल परिवार की भागती दौड़ती संस्कृति के बीच, बच्चे वृद्धावस्था में अपने माता पिता के लाठी का सहारा न भी बने, तो भी इस तरह के अवसरों पर अपने बाल सुलभ हरकतों एवं निश्छल प्यार से, मां के कोख से जन्म लेने का कर्ज चुका ही दिया करते हैं। एक मां को संतान की लालसा शायद ऐसे ही किन्हीं अवसरों के लिये ज्यादा हुआ करती है। वास्तव में संतान के रूप में एक स्त्री को अपने मित्र, रक्षक और एक ऐसे हमदर्द की तलाश होती है जो एक पति के रूप में कहीं न कहीं अधूरी छूट जाती है।
किसी स्त्री का एक पुत्र के प्रति प्रेम, यदि विपरीत लिंग के आकर्षण के कारण संभव होता होगा, जैसा कि मनोवैज्ञानिकों का कथन है, तो एक स्त्री उसमें उस निश्छल और पवित्र प्यार की तलाश अवश्य करती होगी, जो उसे अपने पति के रूप में उस इंसान से अपेक्षा थी, जिसके प्यार की कल्पनाओं में गोते लगाना कभी उसके लिये सर्वाधिक सुखद हुआ करता था। यद्यपि यह प्यार संतान के साथ वात्सल्य के पवित्र स्वरूप में परिणित हो जाता है ।
मेरा बेटा अभी तक सिसक रहा था, मैं उसे चुप कराने का प्रयत्न करने लगी, किंतु मेरे बार-बार आंसू पोंछने और मेरी ममता के बीच पीड़ा से सहमा हुआ वह नन्हा सा बालक मेरे गले से लिपटा हुआ मुझे छोड़ ही नहीं रहा था। मैने बेटे को पुचकारते हुये उसी की बोली में तुतलाते हुये कहा - क्या हुआ मेरे राजा भ्ौया को, इस तरह नहीं रोते ! अच्छे बच्चे इस तरह आंसू नहीं बहाया करते, ठीक है .... ऐसा कहते हुये उसे मैं गोद में उठा प्यार करने लगी ।
थोड़ी देर में मेरा बेटा संयत हो गया और मुझसे कहने लगा - मम्मी, मम्मी ।
मैने कहा - क्या हुआ ?
मम्मी जी मैं बड़ा हो जाउंगा तो पापा को मारूंगा, आप रोना मत। मम्मी, मुझे भी पापा जितना बड़ा कर दो ना ।
मैं उस दिन अपने बेटे के बालमन में छिपे, पिता के प्रति आक्रोश को देखकर क्षण भर को सहम सी गयी। मुझे डर सा लगने लगा, मैं यह सोच घबराने लगी की कहीं नित्य की कहासुनी उसके बालमस्तिष्क पर बुरा प्रभाव ना डालने लगे।
बेटे को पुचकारते हुये मैने कहा - नहीं बेटा .... ऐसा नहीं कहते । मम्मी से गलती हो जाती है, इसलिए पापा गुस्सा हो जाते हैं। उसके नन्हे से कंध्ो पर हाथ रख मैं उसके प्रति अपने वात्सल्य का प्रदर्शन करते हुये उसी की भाषा में समझाते हुये कहने लगी - देखिये जब आप गलती करते हैं, तो मम्मी जी आपको डांटा करती हैं ना, ठीक वैसे ही मम्मी से भी गलती होती है, फिर पापा के प्रति गुस्सा क्यों? पापा सबसे अच्छे इंसान हैं, बेटा के लिये चाकलेट लाते हैं, ढेर सारे खिलौने लाते हैं, बोलो है ना?
मेरा बेटा मेरे शब्द जाल में उलझ जाता और मैं उसके मन में किसी तरह पनपने वाले पिता के प्रति क्रोध व प्रतिशोध के बीज को अंकुरित होने से बचा पाने में, हर बार सफल हो जाया करती।
मैं इस तरह के वाद-विवाद और जुल्म को, इस उम्मीद के साथ हर बार सहा करती कि शायद शारीरिक रूप से प्रताड़ित होने का मेरा यह अंतिम अवसर हो और वह अंतिम दिन मेरे लिये सदैव ही अनंतिम बन कुछ कदम दूर रूठकर खड़ी हो जाया करती। मैं हर रात इसी उम्मीद के साथ बिस्तर पर इन वाद विवादों और आंतरिक असह्य पीड़ा को अंतर्मन में समेट सो जाया करती, कि आने वाली प्रातः की बेला सूर्योदय के साथ मेरे लिये एक नया सबेरा लेकर आयेगा, लेकिन उस क्रूर आश को न तो कभी मुझ पर दया आयी और न ही मेरे निर्लज्ज ध्ौर्य ने कभी मेरा दामन छोड़ा।
मैं सुधीर को विदा कर अपने ऑफिस जाने की तैयारी करने लगी, आईने के सामने बैठ आंखों के नीचे सूखे हुये आंसुओं की बूंदों को रूमाल से पोंछने के प्रयत्न के बीच मेरा ध्यान गाल पर पड़े उंगलियों के निशान की ओर अनायास ही चला गया और तमाम तरह के सौंदर्य प्रसाधनों के लेप के पश्चात भी मैं उसे ढक पाने में नाकामयाब रही । मेरे गालों पर उभरे हुये रक्तिम निशान, जो धीरे धीरे कालिमा में परिवर्तित हो रही थी, घर की पूरी कहानी खुदबखुद बयां करने के लिये पर्याप्त थी, और ऐसी व्यथाओं को प्रतिबिंबित करती किसी स्मृति चिन्ह के रूप में इस निशान के साथ ऑफिस तक जाना मेरे लिये उस दिन संभव न हो सका। लिहाजा मैने छुट्टी के लिये आवेदन फेक्स कर दिया।
बिस्तर पर पड़े हुये मैं अतीत की स्मृतियों में खो गयी, मैं याद कर रही थी उन दिनों को, जब मैं सुधीर के लिये सब कुछ हुआ करती थी । मेरे हरेक शब्द उन्हे मोतियों की तरह लगा करते, मात्र कुछेक पंक्तियों के सृजन पर तालियों की गड़गड़ाहट से समूचा कमरा ध्वनिमय हो जाता, वह मुझे मंा शारदा की कृपापात्र एक ऐसी स्त्री के रूप में देखा करता, जिसके हरेक अंगों से विद्वता और प्रतिभा किसी झरने की तरह झरा करती, किंतु अब शादी को पांच साल हो गये थ्ो और पुरूष का मन किसी स्त्री और ऐश्वर्य पर बहुत दिनों तक टिका नहीं रहता। वास्तव में पुरूष का परिवर्तित होता चेहरा नये-नये रूप में नित्य प्रति सामने आता ह,ै जिसे किसी औरत के लिये समझ पाना काफी कठिन हुआ करता है। पुरूष स्वयं को जितना सहज प्रदर्शित करता है, वह वास्तव में होता नहीं और स्त्री को समाज के पहरेदार जितना कठिन समझते हैं, वे सदैव उसके विपरीत हुआ करती हैं, स्त्री और पुरूष में शायद यही अंतर हुआ करता है।
अभी इसी उध्ोड़बुन में खोयी हुई थी तभी अचानक मां का फोन आ गया, मां ने कहा -
आशा, मैं आज कुछ जरूरी काम से दिल्ली आ रही हूं, बेटा सोच रही हूं, आज रात तुम्हारे यहां रूकूंगी, तुम लेने स्टेशन आ जाओ रात सात बजे के आसपास ट्रेन वहां पहुँचेगी ।
मेरा इतना सुनना था कि मेरे होश फाख्ता हो गये, मैं कुछ भी कह सकने की स्थिति में नहीं थी, म्ोरे हालात उस समय ऐसे नहीं थ्ो कि मैं मां का उस कड़वे स्मृति चिन्ह के साथ सामना कर पाती, मैंने मां से झूठ बोलते हुये कहा -
मां आज रात हम सुधीर के साथ पार्टी में बाहर जा रहे हैं, तुम छोटे भाई अनिल के यहां आज रूक जाओ, कल सुबह मैं आपको लेने आ जाउंगी ।
मां ने कहा - बेटा, अनिल तो पहले ही दिल्ली से बाहर है, तुम चाबी पड़ोसी के यहां छोड़ जाओ, मैं घर में अकेले रूक जाउंगी।
एक स्त्री के लिये इस तरह के असमंजस भरे क्षण किसी धर्मसंकट से कम नहीं हुआ करते, यदि झूठ को छिपाना इन क्षणों में कठिन होता है तो सत्य को बयां करना उससे कहीं ज्यादा कठिन हुआ करता है। वह जानती है कि पति के इस तरह के दुर्गुणों को छिपाकर झूठ की नींव पर बहुत दिनों तक संतोष की इमारत खड़ी नहीं रखी जा सकती, लेकिन वह यह भी समझती है कि इससे लोगों की नजरों में उसके पति की प्रतिष्ठा को, यदि एक बार आंच पहुंची तो उसकी पुर्नप्राप्ति में काफी समय लगेगा। उसे मां की सेहत को भी ध्यान में रखना होता है, उसे यह भली भांति पूर्वानुमान होता है कि उसका छोटे से छोटा दुख मां को अंदर तक खोखला कर देगा ।
ना चाहते हुये भी, हां कहने के अलावा मेरे सामने कोई विकल्प नहीं बचा था, मैने मां से कहा- ठीक है मां, आप स्टेशन पर इंतजार करना, मैं आपको लेने आउंगी ।
थोड़ी देर में सुधीर भी ऑफिस से आ गया, किंतु मुझे घर में ही पड़ा देख अपने चिरपिरचित कुटील मुस्कुराहट से व्यंग्य लहजे में कहा- अच्छा! तो आज महारानी जी ऑफिस नहीं गयी हैं, क्या घर की दीवारों से गम बांटने का इरादा हो गया या फिर इन्ही गमों के बीच कोई नई कविता उमड़ पड़ी।
मैने एक चाय का प्याला मेज पर रखते हुये सुधीर से निवेदन भरे लहजे में कहा- देखो सुधीर, मैं किसी विवाद को अनावश्यक जन्म नहीं देना चाहती, मां का फोन आया था, वे आज घर आ रही हैं, प्लीज, कुछ ऐसा मत करना जिससे मां को यह सब पता चले ।
अच्छा, तो मां को भी यह सब खबर हो गयी ।
सुधीर, वे अपने कुछ काम से दिल्ली आ रही हैं, मैं इतनी कायर और डरपोक महिला नहीं हूं कि अपने पारिवारिक विवादों में मायके वालों को घसीटूं और फिर अभी मुझमें तुम्हारे जुल्मों से निपटने का मादा बचा हुआ है ।
मैं थोड़ी देर में मां को लेकर स्टेशन से घर आ गयी, वे थकी हुई थीं, उन्हे उबासी आ रही थी, वे कह रही थीं- बेटा ट्रेन में बहुत भीड़ थी । अच्छा बताओ, तुम कैसी हो, सुधीर कैसा है ? और ये लाडला बेटा... ।
मां हम सब ठीक हैं, सुधीर कमरे में अखबार पढ़ रहा है ।
तभी, मां की नजर मेरे गालों पर पड़ गयी, मां के चेहरे से जैसे हवाइर्यां उड़ने लगीं, उसने आश्चर्य मिश्रित लहजे में कहा- बेटा गालों पर उंगलियों के निशान! कहीं सुधीर से कुछ कहा-सुनी तो नहीं हो गयी ?
अरे नहीं मां, आप तो खामखां कुछ भी संदेह करने लगती हो, ये तुम्हारा लाडला बेटा है ना, बहुत जिद्दी है मां, कल अपने नाखून से मेरे गालों में खरोच दिया, बहुत बिगड़ रहा है, क्या करूं आप ही बताओ ना ?
इसी बीच मेरा बेटा कुछ बोलने का प्रयत्न करने लगा, मैने उसे बहलाते हुये गोद में उठा लिया और चाकलेट थमाते हुये कहा, जाओ आप ख्ोलो, नानीजी आपके लिये ढेर सारा चाकलेट लायी हैं।
आशा, मुझे सब कुछ ठीक-ठाक नहीं लगता बेटा, सच-सच बताओ, सुधीर से कुछ कहासुनी हो गयी ?
मैने चेहरे पर बनावटी हंसी का आवरण ओढ़ते हुये कहा- अजी, सुनते हो! मां को समझाओ भई, मेरी बातों में यकीन नहीं है मां को, वे मानने को ही तैयार नहीं है कि गालों पर खरोंच इस लाडले का काम है ।
सुधीर को तो जैसे मेरे इस झूठ से एक प्रकार का सुरक्षा कवच मिल गया, अपने दोहरे पुरूषगत् चरित्र का प्रदर्शन करते हुये वह कहने लगा- हां मां, आशा ठीक कह रही है, लड़का बहुत जिद्दी हो गया है ।
पता नहीं, प्राचीन ग्रंथों में स्त्रियों के चरित्र पर इतनी उंगलियां क्यों उठायी गयी ? क्यों इसे एक आख्यान के रूप में प्रयुक्त किया जाने लगा कि - स्त्री चरित्रं पुरूषस्य भाग्यं, देवो ना जानाति । क्या पुरूष का द्वैत चरित्र, उक्त पंक्तियों को लज्जित करने के लिये पर्याप्त नहीं है ?पुरूष सदैव दोहरे चरित्र में जीता है, वह जितना जटिल होता है, उतने ही सरल स्वरूप का मुखौटा लगाता है।
वह सदा ही स्वार्थ की पृष्ठभूमि पर अपने सफलता की इमारत खड़ी करने की आकांक्षा रखता है। बचपन में पुत्र के रूप में, युवावस्था में एक छलिये प्रेमी के रूप में तथा विवाह के उपरांत एक ऐसे शोषक के रूप में जो नित नये वेश बदलकर सामने आता है। सच तो यह है कि पुरूष, समाज का एक ऐसा कृतघ्न चरित्र है जो अपनी जन्म देने वाली मां को भी बुढ़ापे में बोझ समझने लगता है और जो चरित्र अपनी जननी का ना हो सका उससे भला कोई स्त्री क्या उम्मीद कर सकती है? कम से कम स्त्रियां तो इस मामले में अवश्य श्रेष्ठ होती हैं, कि वे बहुत दूर रहकर भी मां के प्रति अपने प्यार, अपनापन और लगाव को अंत तक जिंदा रख कोख का कर्ज आखिर तक चुका ही देती है।
दिन, महीनों और सालों में बीतते गये, पर मैने तानों और उलाहनों के बीच कभी लिखना नहीं छोड़ा। इर्श्वर जन्म देते समय सबकी भूमिका निश्चित कर भ्ोजता है और कदाचित मां सरस्वती ने मेरी रचना इसीलिये की थी। मेरी मेहनत रंग लाते गयी और अब मेरी कविताओं के चर्चे अंतर्जाल से निकलकर साहित्य के यथार्थ धरातल पर भी होने लगी थी। कविताएं मेरी पहचान बनने लगी थी या यूं कह लें कि कुछ कविताओं की पहचान ही मुझसे होने लगी थीं। वैसे भी किसी कवि के लिये वे क्षण बड़े सुखद होते हैं जब कविताओं की विशिष्ट विधाएं उसकी पहचान बन जाती हैं, और एक शोषित नारी की व्यथाओं के बेहतरीन चित्रण के लिये मुझे जाना जाने लगा था।
अब तो मैं कुछ कवि सम्मेलनों में भी जाने लगी थी,एक कवियित्री के रूप में साहित्य जगत में मेरी पहचान ने, सुधीर के पुरूषोचित दंभ को आहत करना शुरू कर दिया था । वह हर बार मुझे इस तरह के सम्मेलनों में जाने से रोका करता, मेरे साहित्य सृजन पर सभी तरह के रोड़े अटकाया करता परंतु मैं तो उस अविरल प्रवाहमान सरिता की तरह मां शारदा के कर कमलों से प्रस्फुटित हो चुकी थी, जिसे रोक पाना अब सुधीर के बस की बात नहीं थी। सभी तरह के अवरोधों के पश्चात भी मैने लिखना नहीं छोड़ा, “कर्मण्येवाधिकारस्ते मां फलेषु कदाचनः” की तर्ज पर बिना फल की चिंता किये सिर्फ लिखती रही और इस तरह बीते सालों में मैने दर्जन भर से अधिक रचनाएं हिन्दी साहित्य जगत को प्रदान की ।
समय की सुइयाँ अपने निर्बाध गति से चलती रहीं और अब तो धीरे-धीरे सुधीर की पहचान भी मेरे पति के रूप में होने लगी थी। कई अवसरों पर दूसरों के मुख से मेरी प्रशंसा सुन सुधीर को अब मुझमें खूबियां नजर आने लगी थीं। साहित्य जगत में गहरी होती मेरी पैठ और बनती हुई एक अलग पहचान ने सुधीर के सोच की दिशा में थोड़ा परिवर्तन आरंभ कर दिया था। वह कई अवसरों पर अब मेरी प्रशंसा किया करता, लेकिन अब मुझे उसके इस प्रशंसा की शायद जरूरत ही नहीं थी। पुरूष और स्त्री में शायद यही मूल अंतर होता है, एक स्त्री अपने पति की प्रतिभा को सबसे पहले पहचानती है और एक पुरूष अपनी पत्नी की खूबियों की तब कद्र करना प्रारंभ करता है जब उसे इतने प्रशंसक मिल चुके होते हैं कि उसे अपने पति की सराहना की कदाचित् आवश्यकता ही नहीं होती।
रात्रि के 9 बज रहे थ्ो, मैं पिछले एक हफ्ते से बीमार बिस्तर पर पड़ी थी। टी.वी. में साहित्य अकादमी पुरस्कारों की घोषणा हो रही थी। सुधीर भी भोजन के मेज पर बैठा हुआ समाचार देख रहा था, समाचार देखना मेरी आदतों में शुमार नहीं था किंतु सुधीर के साथ बैठकर देखना मेरी विवशता होती थी । अभी पुरस्कारों की घोषणा प्रारंभ ही हुई थी कि अचानक बिजली गुल हो गयी, मुझे अच्छा लगा, थोड़ी शांति महसूस हुई और मैं चादर ढंककर सो गयी ।
अचानक मेरे सेल फोन पर मेरे एक परिचित मित्र, जिसे मैं अपने एक प्रबुद्ध पाठक के रूप में देखती थी का फोन आया, उसने बताया कि साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिये जिन लेखकों व कवियों के नामों की घोषणा अभी-अभी की गयी है उसमें मेरा नाम भी है। मैं बिस्तर से उछल पड़ी, मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। वैसे तो हरेक साहित्यकार, स्वांतः सुखाय के रूप में साहित्य की पूजा करता है किंतु इस तरह के पुरस्कार न केवल उसके मनोबल को बढ़ाते हैं बल्कि उसकी इस साधना को पूर्णता प्रदान करते हैं, ठीक उसी तरह, जिस तरह एक विवाहित स्त्री मां बनने के पश्चात स्वयं को एक पूर्ण औरत के रूप में अनुभव करती है ।
सुधीर ने मुझे बधाई देते हुये अपनी बांहों में समेट लिया, किंतु आज वे बांह मुझे शूल की तरह चुभ रहे थ्ो, मैं जिस छाती में आलिंगन भर, कभी स्वर्ग सा सुख महसूस किया करती और जहां सिमट जाने पलों को लम्हों की तरह गिना करती, आज उससे अलग होने को मैं जैसे छटपटा रही थी ।
उसने मुझे अपने आलिंगन से मुक्त करते हुये कहा- आशा मुझे क्षमा कर दो, मै तुम्हारी कद्र ना कर सका। तुम एक श्रेष्ठ कवियित्री और रचनाकार हो यह तुमने आज प्रमाणित कर दिया ।
मैं चुप थी, बोलने के लिये मेरे पास भला कोई शब्द क्या हो सकते थ्ो, फिर भी अतीत के वे दर्द बार-बार मुझे उद्वेलित कर रही थीं ।
सुधीर ने फिर से कहा- आशा, क्या तुम मुझे माफ नहीं करोगी ? कौतूहल से उसकी नजरें मेरी ओर टकटकी लगाये देख रही थी ।
मैने कहा- सुधीर तुमने बहुत देर कर दी, मेरे शब्दकोष में अब क्षमा शब्द बचा ही कहां है?तुमने तो मेरा सब कुछ रिक्त कर दिया, मेरे अंदर की भावना कुम्हला सी गयी । अतृप्त प्यार आंसुओं के साथ बाहर निकल कोरों पर सूख गयीं, मेरा पल-पल घुटता असहाय जीवन तुम्हारी आस लिये अंत तक सिसकता रहा, पर तुम्हें कभी मुझ पर दया नहीं आयी। सुधीर मैं अपनी पीड़ा को शब्दों के माध्यम से समाज के आइने के रूप में साहित्य जगत को परोसती रही, अपनी व्यथा को कविता का माध्यम बना लोगों के साथ बांट उनकी प्रशंसा के चंद शब्दों के सहारे जीती रही, पर तुमने कभी मुझे पलटकर नहीं देखा। तुम्हारी बेरूखी मुझे हर क्षण तड़पाती रही, मेरा घुटता जीवन मेरे शब्दों में प्रतिबिंबित होता रहा, पर तुमने कभी उसे समझने की आवश्यकता ही महसूस नहीं की । बताओ ना सुधीर, मैने तुम्हारे प्यार पाने क्या-क्या जतन नहीं किये ?
इतने निष्ठुर ना बनो, प्लीज आशा मुझे माफ कर दो, सुधीर ने गिड़गिड़ाते हुये कहा ।
चलो सुधीर, मैं थोड़ी देर के लिये तुम्हें माफ कर भी दूं, तो क्या तुम्हारी आत्मा तुम्हें क्षमा कर देगी? तुम्हारे वे निष्ठुर हाथ, जो कभी मेरे बदन पर चिन्ह छोड़ गौरव अनुभूत करते थ्ो, क्या उन्हे मुझे आलिंगन में लेते हुये लाज ना आयेगी ? तुम कैसे हो सुधीर ? तुमने मुझे जीवन भर इतना सताया है कि अब मेरे पास कुछ भी श्ोष नहीं है, हाड़ मांस के इस देह पर अंदर घुन सा लग गया है, सुधीर, मैं तुम्हें कैसे बताउं ?
सुधीर कातर दृष्टि से मुझे देखता रहा ।
एक सप्ताह बाद आयोजित होने वाले पुरस्कार ग्रहण समारोह हेतु मुझे आमंत्रण मिल चुका था । औरत का हदय बहुत विशाल और धनी होता है, वह चाहे जितनी कंगाल हो जाये पर क्षमा से भरा उसका कोष कभी रिक्त नहीं होता, भले ही अपने जीवनकाल में उसे क्षमादान औरों से कदाचित् ही मिल पाती हो लेकिन वह स्वयं जीवन के अंत तक सबको क्षमा करती है। श्ौशव में भाई की हठधर्मिता से लेकर, एक पुरूष की बेवफाई और पति की बेरूखी तक सबको सिर्फ क्षमा ही तो करती है ।
मैने अपनी उदारता का परिचय देते हुये कहा - सुधीर, पुरस्कार ग्रहण करने तुम चले जाओ, वैसे भी मेरी तबियत ठीक नहीं है, मैं जानती हूं कि यह मेरे जीवन का सबसे गौरवशाली क्षण होगा, जो पुरस्कार मेरी पूजा और साधना के परिणाम के रूप में आज मेरी प्रतीक्षा कर रहा है, उसे तुम्हारे हाथों प्राप्त करते हुये मुझे ज्यादा खुशी होगी। मैं तुम्हें आज अहसास भी कराना चाहती हूं कि उस प्रशस्ति पत्र और छोटे से पुरस्कार जिसमें मां सरस्वती विराजती हैं, को प्राप्त करते हुये कैसा अनुभव होता है। कोई साहित्यकार कैसे शून्य से उकेर कर किन्हीं पंक्तियों को कोई स्वरूप प्रदान करता है, ठीक उसी तरह जिस तरह सुनार एक सोने के एक अनगढ़ टुकड़े को आभूषणों का रूप देता है ।
नहीं आशा, हम दोनो साथ चलेंगे ।
मैंने कहा - नहीं सुधीर, मैं नहीं जा सकूंगी ।
मैं सुधीर के साथ पुरस्कार ग्रहण करने नहीं जाना चाहती थी । औरत के स्वभाव के साथ एक विचित्रता होती है, वह किसी व्यक्ति को उसके किये गये अपराध के लिये क्षमा कर भी दे तो भी पुनः उसे वह स्थान कभी नहीं देतीं, एक बार नजरों से गिरे इंसान को फिर से वही दर्जा देना औरत की फितरत में शायद होता ही नहीं है ।
मैं आज सुधीर को पुरस्कार प्राप्त करने का अधिकार प्रदान कर, एक ओर जहां उसे क्षमा करना चाहती थी, वहीं दूसरी ओर उसे इस समारोह में अकेले भ्ोज उसके जीवन भर मेरे साथ किये गये जुल्म की सजा भी देना चाहती थी । मुझे मेरे एक पाठक के कहे गये वे शब्द आज याद आ रहे थ्ो , उन्होने मुझे एक बार लिखा था - आप तो उस महान वृक्ष की तरह हैं जो व्यक्ति द्वारा पत्थर मारने पर उसे अपने मीठे फल देकर जहां उसे तृप्त करती है वहीं उसे शर्मिंदगी का अहसास भी कराती है ।
कार्यक्रम का सीधा प्रसारण मैं देख रही थी, तालियों की गड़गड़ाहट के बीच जब पुरस्कार वितरण समारोह में मेरा नाम पुकारा गया तो मैं गर्व से अभिभूत हो गयी, मेरे आंखों से आंसू छलक पड़े, म्ौं देख पा रही थी कि किस तरह कार्यक्रम के संचालक ने मेरा नाम पुकारते हुये कहा, कि आशा जी का पुरस्कार ग्रहण करने उनके पति मिस्टर सुघीर सक्सेना आये हुये हैं, हम उनसे अनुरोध करते हैं कि वे मंच पर आयें और पुरस्कार ग्रहण करें ।
सुधीर गर्व से फूला नहीं समा रहा था, वह दोनों हाथों को हिलाता हुआ लोगों का अभिवादन स्वीकार कर रहा था । वह उन क्षणों में बड़ा गौरान्वित था ।
मैं इसी दिन की आस में आज तक बैठी थी, आज जहां मेरी साधना का फल मुझे मिल चुका था, वहीं मेरी प्रतिज्ञा भी पूरी हो चुकी थी। मैने आज पुरूष दंभ को औरत के कद का अहसास कराया था। मैं दुनिया को यह बताने में आज कामयाब थी, कि एक औरत किस तरह सभी तरह की प्रताड़नाओं को झेलती हुई, अपने मूल्यों और आदर्शों के बीच अपने शौक को भी मंजिल प्रदान करने में कामयाब रहती है ।
मैंने ब्रीफकेस में अपना सारा सामान पेक कर लिया था, आज मैं अपने बेटे के साथ उस गुमनाम यात्रा पर निकल जाना चाहती थी, जहां मुझे पहचानने वाला कोई ना हो । म्ौं सुधीर को बस केवल यहीं तक क्षमा करना चाहती थी और उसके साथ इस रिश्ते को इसी मोड़ पर लाकर आज विराम भी देना चाहती थी ।
मुझे किसी चलचित्र में कही गयी वे पंक्तियां याद आ रही थीं, जिसमें किसी ने कहा था कि- यदि किसी रिश्ते को बहुत दूर तक ले जाना संभव ना हो, तो उसे किसी खूबसूरत मोड़ पर लाकर छोड़ देना चाहिये और मेरे लिये इससे खूबसूरत कोई मोड़ हो नहीं सकता था ।
मैने एक पत्र लिखा और उसे वहीं मेज पर छोड़ चाबी, पड़ोसी के यहां देकर चली आयी ।
सुधीर जब पुरस्कार लेकर घर आया तो वह मेज पर पड़े पत्र को पढ़ अवाक् हो अनंत आकाश में शून्य को निहारता रहा। पत्र में मैने लिखा था - सुधीर मैने तुम्हें क्षमा कर दी है, किंतु मैं आज तुम्हें छोड़कर उस अनंत यात्रा के लिये निकल पड़ी हूं , जहां तुम मुझे इस जन्म में दोबारा नहीं पा सकोगे। कुछ व्यक्तियों को किसी के महत्व का अहसास उसे खोकर होता है, सुधीर कदाचित् तुम भी उन्हीं लोगों में से हो । तुम खुश रहो, मुझे ढूंढ़ना मत।
अलविदा ।