कुछ तो वजहें होंगी, कुछ तो अफसाने होंगे ।
वरना कोई रोज-रोज नहीं लिखा करता इस तरह मातमी गान ।
निश्चय ही धरती के भीतर,
कुछ तो उथल-पुथल होती होंगी ।
भावनाओं के कोमल सतह पर,
कठोर चट्टानों का आधात होता होगा।
कभी भूचाल आते होंगे,
कभी अंदर का लावा पिघलकर,
कलम के सहारे शब्दों का शक्ल लेता होगा ।
सारी वेदनायें अक्षरों में सिमट जाती होंगी,
और बनती होंगी, झकझोर देने वाली कविता ।
कोई तो है, जिसके कटु वचनों से आहत होता होगा हर रोज तुम्हारा मान,
वरना कोई रोज-रोज नहीं लिखा करता, इस तरह मातमी गान ।
पर्वतों सा मुकुट पर तेरे,
किसी सिरफिरे का शत बार प्रहार होता होगा ।
तुम्हारे केशुओं सा फैली घनी चोंटियों की श्रृंखला में,
किसी मदभरे गज का भीतर तक संघात होता होगा।
टूटती होंगी शिखर छूती टहनियां,
उजड़ती होंगी भीतर कलरव करती खग सी ख्वाईशो के घोसले।
पनाहों के लिये भटकती होंगी,
तुम्हारे भीतर का अंर्तद्वंद ।
और तब टूटती होगी मर्यादा कलम की,
टूटता होगा शब्दों का वह सम्मान ।
पता नहीं क्यों?
जब-जब पढ़ा करता तुम्हे, तब-तब होता ऐसा ही कुछ भान ।
वरना कोई रोज-रोज नहीं लिखा करता इस तरह मातमी गान।
कोई तुझे अपनी तप्त रश्मियों से दग्ध कर,
कुरेदता होगा रसातल तक ।
तुम्हारे हिमशिखर सा पाषाण इरादे पिघलते होंगे ।
और चक्षु संबंधों का विस्तार पाती होंगी अधर तक ।
बहती होगी सरिता,
समस्त वेदनाओं के करकटों को स्वयं में समेटकर ।
सागर सा धैर्य, मुख का तुम्हारा,
विचलित होता होगा क्षण भर को ।
हृदय में उठती होंगी विशालकाय लहरें ।
डूबती होंगी तटें ना जाने कितनी,
कितनी अभिलाषाएं मृतप्राय सी होती होंगी सतह पर ।
और तब कहीं कागजों पर रेखांकित होती होगी, एक नारी का चोटिल स्वाभिमान ।
ना जाने क्यों ? तुम्हारे शब्दों में छिपी इन्ही वेदनाओं को देख ,
हर रोज टूटा करता, मेरे पुरूष होने का अभिमान ।
सच कहता हूं, कुछ तो जरूर है,
वरना कोई रोज-रोज नहीं लिखा करता इस तरह मातमी गान ।
सोमवार, 2 नवंबर 2009
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13 टिप्पणियां:
sirf waah karke kavita ka samman kam nhi karna chahti..........na jaane kaun sa jwalamukhi daba pada tha jisne aaj itni umda aur sashakt rachna ko janam diya hai.............shabd kam pad rahe hain kahne ke liye............bahut hi gahan bhavnayein aur utne hi kareene se ki gayi prastuti...........aage bhi isi prakar ki rachnaon ka intzaar rahega.
कविता अच्छी है न जाने किस के मन के भावों को समझ रच डाला आपने इसे........
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पता नहीं क्यों ? तुम्हारे शब्दों में छिपी इन्ही वेदनाओं को देख ,
हर रोज टूटा करता, मेरे पुरूष होने का अभिमान ।
सच कहता हूं, कुछ तो जरूर है,
वरना कोई रोज-रोज नहीं लिखा करता इस तरह मातमी गान ।
सुन्दर भावों से सजी इस पोस्ट के लिए बधाई!
बहतरीन लिखा है राकेश जी ......... कुछ न कुछ तो होता ही है तभी कविता का निर्माण होता है ......... कहीं मातम कहीं प्यार ......
भावनाओं के कोमल सतह पर,
कठोर चट्टानों का आधात होता होगा।
कलम के सहारे शब्दों का शक्ल लेता होगा ।
सारी वेदनायें अक्षरों में सिमट जाती होंगी,
" मन जैसे इन पंक्तियों की गहराई में डूब कर रह गया है.......कितना कठोर सत्य है जो इन पंक्तियों मे बिना किसी लाग लपेट के उभर आया है.....एक अजीब सा चित्र जैसे अंकित होता रहा पढ़ते वक़्त......बेहद प्रभावशाली "
regards
बहुत ही सुंदर भाव और अभिव्यक्ति के साथ लिखी हुई आपकी ये कविता प्रशंग्सनीय है! बहुत खूब!
BHAVABHIVYAKTI ATI SUNDAR AUR
SAHAJ HAI.AAP EK ACHCHHE KAHANIKAR
HEE NAHIN HAIN,ACHCHHE KAVI BHEE
HAI.MEREE SHUBH KAMNAYEN.
BAhut khub likha hai. Badhai.
सारी वेदनायें अक्षरों में सिमट जाती होंगी,
और बनती होंगी, झकझोर देने वाली कविता ।
कितना सही है आपने
मेरा ख्याल है-
जज्बात का तूफान उठे जब कभी 'शाहिद'
नगमात, कोई गीत, कोई शेर बने हैं
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
बेहतरी रचना के लिए
बहुत -२ आभार
कविता पढने से पहले, देता हूँ एक बधाई.
वन्दना जी की कविता पर ट्टिपणी आपकी भायी.
ट्टिपणी भायी, ढूँढ-ढूँढ कर खोजा आपको.
क्या जाने इसका भी पता ना चले आपको.
कह साधक पा जाऊँ जो ई-मेल आपका
बधाई दे दूँ पढने से पहले ही कविता.
भई वाह!... आप कम लिखते हैं, अच्छा लिखते हैं. ज्यादा लिखकर बोर कैसे किया जाता है, जानना हो तो पधारें-sahiasha.wordpress.com पर.
very nice...
heart touching....
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